मंगलवार, 30 मार्च 2010

जाझ फिरंगी सदैव के लिये इतिहास के नेपथ्य में चला गया।

कुछ दिन बाद जाझ फिरंगी ने अपनी स्थिति को ठीक करके उसने बीकानेर को दण्डित करने का निर्णय लिया क्योंकि बीकानेर के कारण ही वह जीती हुई लड़ाई हार गया था। जॉर्ज ने इस बार दो काम किये। एक तो उसने अपने तोपखाने को मजबूत बनाया तथा दूसरे उसने पानी का प्रबंध किया। उसने बड़ी बड़ी पखालों में पानी भरवाकर अपने साथ रख लिया तथा वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर बीकानेर राज्य की ओर कूच किया।
बीकानेर का राजा सूरतसिंह जॉर्ज के तोपखाने का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं था। इसलिये उसने खुले मैदान के स्थान पर नगरों और कस्बों के भीतर जॉर्ज से निबटने की योजना बनायी ताकि जॉर्ज का तोपखाना काम न आ सके। सूरतसिंह ने बीकानेर राज्य की सीमा पर आने वाले प्रत्येक गाँव में अपनी पैदल सेना छिपा दी।
जॉर्ज ने सर्वप्रथम जैतपुर गाँव पर चढ़ाई की। इस युद्ध में उसके दो सौ सिपाही मारे गये। जैतपुर के लोगों ने जॉर्ज को रुपये देकर अपने जान व माल की रक्षा की। इसके बाद जॉर्ज गाँव दर गाँव जीतता हुआ बीकानेर की ओर बढ़ने लगा। बीकानेर के अधिकांश सामंत राजा सूरतसिंह से रुष्ट चल रहे थे क्योंकि सूरतसिंह ने बीकानेर के बालक महाराजा प्रतापसिंह की हत्या करके बीकानेर की गद्दी हथियाई थी। इसलिये वे जॉर्ज की सेना के साथ आ खड़े हुए।
सूरतसिंह ने अपने सरदारों को शत्रुपक्ष में गया देखकर हथियार डाल दिये। उसने जॉर्ज को दो लाख रुपये देने का वचन दिया। महाराजा ने एक लाख रुपये तो उसी समय चुका दिये तथा शेष एक लाख रुपये की हुण्डियां जयपुर के व्यापारियों के नाम लिख कर दे दी। व्यापारियों ने जॉर्ज को इन हुण्डियों के रुपये नहीं दिये जिससे जॉर्ज फिर से बीकानेर पर चढ़कर आया। इस बार बीकानेर की सहायता के लिये पटियाला की सेना आ पहुँची। इससे जॉर्ज की हालत पतली हो गयी किंतु ठीक उसी समय bhatiyon ने फतहगढ़ पर अधिकार करने के लिये बीकानेर राज्य के विरुद्ध जॉर्ज की सहायता मांगी तथा उसे 40 हजार रुपये प्रदान किये। जॉर्ज ने फतहगढ़ पहुँच कर उस पर bhatiyon का अधिकार करवा दिया।
इस क्षेत्र के विषम जलवायु की चपेट में आ जाने से जॉर्ज की दो तिहाई सेना नष्ट हो गयी जिसके कारण जॉर्ज इस क्षेत्र को छोड़कर फिर से अपने दुर्ग जॉर्जगढ़ में चला गया। जॉर्ज को दुर्बल हुआ जानकर उसके प्रतिस्पर्धी पैरन तथा कप्तान स्मिथ ने भी जॉर्जगढ़ पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में जॉर्ज की पराजय हो गयी और वह दुर्ग छोड़कर ब्रिटिश सीमा प्रांत की तरफ भागा ताकि वहाँ उसे शरण मिल सके। राजपूताने में कोई भी राजा जॉर्ज के लिये विश्वसनीय नहीं था जो संकट में उसकी सहायता कर सके। अगस्त 1802 में कलकत्ता जाते समय उसकी मृत्यु हो गयी तथा जाझ फिरंगी सदैव के लिये इतिहास के नेपथ्य में चला गया।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

जाझ फिरंगी ने राजपूतों से एक–एक कुंआँ छीन लिया

जॉर्ज टॉमस जयपुर राज्य की सेना के पीछे भागता हुआ इसी प्रयास में था कि किसी तरह एक कुंआँ हाथ लग जाये। दोनों सेनाओं में काफी अंतर था इसलिये जयपुर की सेना कुंओं को पाटने में सफल हो रही थी और जॉर्ज किसी कुएँ पर अधिकार नहीं कर पा रहा था।

जॉर्ज टॉमस राजपूताने में जाझ फिरंगी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका जन्म ई. 1756 में आयरलैण्ड में हुआ था। वह ई. 1782 में एक अंग्रेजी जहाज से मद्रास आया। वह उन अंग्रेजों में से था जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा के लिये नहीं अपितु भारत में अपनी रोजी–रोटी की तलाश में स्वतंत्र रूप से आया करते थे। ये लोग कभी किसी रियासत की नौकरी पा लेते तो कभी किसी सैनिक कमाण्डर के नीचे रहकर छोटी–मोटी लड़ाईयां लड़ते थे।

जॉर्ज टॉमस पाँच वर्षों तक कनार्टक में पोलिगरों के साथ रहा। फिर कुछ समय तक हैदराबाद निजाम की सेना में रहकर ई. 1787 में दिल्ली चला आया और बेगम समरू की सेवा में रहा। वहीं से उसे प्रसिद्धि मिलनी आरंभ हुई। ई. 1793 से 1797 तक वह मराठा सेनापति खांडेराव की सेवा में रहा। खांडेराव की मृत्यु होने पर जॉर्ज टॉमस को मराठों का साथ छोड़ देना पड़ा क्योंकि वह वामनराव के व्यवहार से संतुष्ट नहीं था। जॉर्ज टॉमस पंजाब की ओर चला आया और वहाँ एक सेना का निर्माण कर उसने अपने लिये एक दुर्ग बनाकर रहने लगा जिसका नाम उसने जॉर्ज गढ़ रखा। दुर्गपति बनने के बाद उसके हौंसले बुलंद हो गये और वह धन प्राप्ति के लिये योजनाएं बनाकर बड़े–बड़े युद्ध करने लगा। जॉर्ज टॉमस की सफलताएं अद्भुत थीं, उसने हिसार, हांसी तथा सिरसा पर भी अधिकार कर लिया।

ई. 1799 में सिंधिया के सेनापति लकवा दादा ने जयपुर पर आक्रमण किया। लकवादादा के कमाण्डर वामनराव ने जॉर्ज टॉमस को भी इस लड़ाई में आमंत्रित किया। जॉर्ज टॉमस ने वामनराव से कुछ रुपये प्राप्त करने की शर्त पर लड़ाई में भाग लेना स्वीकार किया। जैसे ही जयपुर राज्य की सेना को ज्ञात हुआ कि मराठों की सहायता के लिये जाझ फिरंगी आ गया है तो कच्छवाहे सैनिक मैदान छोड़कर जयपुर की तरफ भाग छूटे।

मैदान साफ देखकर लकवा दादा ने स्थान–स्थान से चौथ वसूली करते हुए फतहपुर की ओर बढ़ना आरंभ किया। उन दिनों जल की अत्यधिक कमी होने के कारण युद्धरत सेनाओं में से पराजित होने वाली सेना मार्ग में पड़ने वाले कुओं को पाटती हुई भागती थी ताकि शत्रु आसानी से उसका पीछा न कर सके जबकि विजयी सेना का यह प्रयास रहता था कि वह शीघ्र से शीघ्र अपने शत्रु तक पहुँच कर कुंए को पाटे जाने से पहले ही उस पर अधिकार कर ले।

जॉर्ज टॉमस जयपुर राज्य की सेना के पीछे भागता हुआ इसी प्रयास में था कि किसी तरह एक कुंआँ हाथ लग जाये। दोनों सेनाओं में काफी अंतर था इसलिये जयपुर की सेना कुंओं को पाटने में सफल हो रही थी और जॉर्ज किसी कुएँ पर अधिकार नहीं कर पा रहा था। अंत में बड़ी कठिनाई से वह एक कुएँ पर अधिकार कर सका।

ठीक उसी समय पीछे भागती हुई जयपुर की सेना को जयपुर से आई नई सेना की सहायता मिल गयी और जयपुर की सेना कांटों की बाड़ आदि लगाकर जॉर्ज तथा लकवा दादा का सामना करने के लिये तैयार हो गयी। दोनों सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ जिसमें जयपुर की सेना परास्त हो गयी तथा जयपुर के सेनापति ने संधि की बात चलाई। जयपुर की सेना ने लकवा दादा तथा जॉर्ज टॉमस को बहुत ही कम राशि देने का प्रस्ताव किया जिससे दोनों पक्षों के मध्य संधि नहीं हो सकी। इस समय जॉर्ज की सेना घोड़ों की घास की कमी से परेशान थी फिर उसने लड़ाई आरंभ करने का निर्णय लिया। इसी बीच बीकानेर राज्य की सेना जयपुर राज्य के समर्थन में आ जुटी। इससे युद्ध का पलड़ा बदल गया तथा जॉर्ज ने युद्ध का मैदान छोड़ने का निर्णय लिया। जयपुर की सेना ने दो दिनों तक जॉर्ज की भागती हुई सेना का पीछा किया तथा उसके बहुत से सैनिकों को मार डाला।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

मारवाड़ की स्त्रियां दो–दो पैसे में और जयपुर की स्त्रियां एक–एक पैसे में बिकीं

इधर जोधपुर को जयुपर तथा बीकानेर की सेनाओं ने घेर रखा था और उधर अमीर खां अपने 60 हजार पिण्डारियों को लेकर जयपुर राज्य में घुसकर लूट मार करने लगा। इस पर विवश होकर जयपुर नरेश को अपनी सेना जोधपुर से हटा लेनी पड़ी।

जोधपुर और जयपुर राज्यों के मध्य हुए इस युद्ध में जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर को और जोधपुर की की सेनाओं ने जयपुर को खूब लूटा–खसोटा और बर्बाद किया। कहते हैं जयपुर वालों ने मारवाड़ की स्त्रियों को दो–दो पैसे में तथा जोधपुर वालों ने जयपुर की स्त्रियों को एक–एक पैसे में बेचा। यह काल राजपूताने के सर्वनाश का काल था। धर्म, आदर्श और नैतिकता का जो पतन इस काल में राजपूताने के हिन्दुओं में देखने को मिला, वैसा उससे पहले या बाद में कभी नहीं देखा गया।

मानसिंह के काल में मारवाड़ में नाथ सम्प्रदाय के जोगड़ों का प्रभाव अत्यन्त बढ़–चढ़ गया क्योंकि नाथों के गुरु आयस देवनाथ ने मानसिंह के दुर्दिनों में भविष्यवाणी की थी कि मानसिंह एक दिन जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठेगा। यह भविष्यवाणी सही निकली थी। इसके बाद मारवाड़ राज्य में नाथों का प्रभाव बहुत बढ़–चढ़ गया। इन नाथों ने जन सामान्य का जीना दुश्वार कर दिया। किसी की बहू–बेटी की इज्जत उन दिनों सुरक्षित नहीं रह गयी थी। जिस स्त्री को चाहते, ये नाथ उठाकर ले जाते। मानसिंह इनसे कुछ नहीं कह पाता था।

भारतीय राजाओं में दान, धर्म, क्षमा, दया तथा गौ, शरणागत, स्त्री, साधु एवं ब्राणों की रक्षा की प्रवृत्ति अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही थी इसी कारण मानसिंह ने नाथ साधुओं के अत्याचारों को सहन किया। जोधपुर नरेश मानसिंह का समकालीन मेवाड़ महाराणा भीमसिंह भी इन्हीं गुणों की खान था। उसकी दानवीरता एवं क्षमाशीलता के अनेक किस्से प्रचलित हैं। एक दिन एक सेवक महाराणा के पैर दबा रहा था। उसने महाराणा को मदिरा के प्रभाव में जानकर महाराणा के पैर में से सोने का छल्ला निकालना चाहा किंतु छल्ला कुछ छोटा होने से निकला नहीं। इस पर नौकर ने थूक लगाकर छल्ला निकाल लिया। सेवक ने तो समझा कि महाराणा मदिरा के प्रभाव में बेसुध है किंतु महाराणा सचेत था। जब सेवक छल्ला निकाल चुका तो महाराणा ने सेवक से कहा कि तुझे छल्ला चाहिये था तो मुझसे वैसे ही मांग लेता, थूक लगा कर मुझे अपवित्र क्यों किया? महाराणा ने उठकर स्नान किया और सेवक की निर्धन अवस्था देखकर उसे पर्याप्त धन प्रदान किया। महाराणा भीमसिंह की मृत्यु पर जोधपुर नरेश मानसिंह ने यह पद लिखा–

राणे भीम न राखियो, दत्त बिन दिहाड़ोह।
हय गंद देता हयां, मुओ न मेवाड़ोह।।
अर्थात् मेवाड़ का राणा भीम, जो दान दिये बिना एक भी दिन खाली नहीं जाने देता था और हाथी–घोड़े दान किया करता था, मरा नहीं है। (वह यश रूपी शरीर से जीवित है।)

उस काल में जोधपुर नरेश मानसिंह तथा मेवाड़ नरेश भीमसिंह हिन्दू नरेशों के गौरव थे किंतु विधि का विधान ऐसा था कि ये वीर पुंगव भी राजपूताने की रक्षा न कर सके और इन दोनों ही नरेशों को अपनी रक्षा के लिये अंग्रेजों का मुँह ताकना पड़ा।

मराठों एवं पिण्डारियों से त्रस्त होकर मारवाड़ ने ई. 1786 तथा 1790 में, जयपुर ने ई. 1787, 1795 तथा 1799 में एवं कोटा ने ई. 1795 में मराठों के विरुद्ध अंगेजों से सहायता मांगी किंतु अंग्रेजों ने इन प्रस्तावों पर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि उस समय अंगे्रजों की नीति राजपूताने के लिये मराठों से युद्ध करने की नहीं थी।
जब राजपूताने की रियासतें मराठों और पिण्डारियों से अपनी रक्षा करने में असफल रहीं तो मराठों और पिण्डारियों ने अंग्रेजों द्वारा विजित क्षेत्रों पर भी धावे मारने आरंभ कर दिये। इससे ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा यह अनुभव किया गया कि जब तक देशी राज्यों को अपने अधीन नहीं किया जायेगा तब तक अंग्रेजी सुरक्षा पंक्ति अंग्रेजी क्षेत्रों की रक्षा नहीं कर सकती। यही कारण है कि अंग्रेज, देशी राज्यों से संधियां करने को लालायित हुए।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

पिण्डारियों ने राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहर पीने पर विवश कर दिया


उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में मराठों और पिण्डारियों के निरंतर आक्रमणों ने राजपूताना की राजनैतिक शक्ति को तोड़कर रख दिया था जिससे त्रस्त होकर राजपूताने की रियासतों ने सिंधियों तथा पठानों को अपनी सेनाओं में जगह दी। ये नितांत अनुशासनहीन सिपाही थे जो किसी विधि–विधान को नहीं मानते थे। इस काल में अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों तथा डच सेनाओं के खूनी पंजे भी भारत पर अपना कब्जा जमाने के लिये जोर आजमाइश कर रहे थे।

इन सब खतरों से बेपरवाह राजपूताना के बड़े रजवाड़ों के मध्य छोटी –छोटी बातों को लेकर मन–मुटाव और संघर्ष चल रहा था। इस काल में राजपूताना की चारों बड़ी रियासतें– जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर तथा जयपुर परस्पर खून की होली खेल रही थीं।

ई. 1803 में मानसिंह जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। उसके पूर्ववर्ती जोधपुर नरेश भीमसिंह की सगाई उदयपुर की राजकुमारी कृष्णाकुमारी के साथ हुई थी किंतु विवाह होने से पहले ही जोधपुर नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी। इस पर मेवाड़ नरेश भीमसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह जयपुर के राजा जगतसिंह के साथ करना निश्चित कर दिया। जोधपुर नरेश मानसिंह ने इस सगाई का विरोध करते हुए महाराणा को लिखा कि राजकुमारी कृष्णाकुमारी का विवाह तो जोधपुर नरेश से होना निश्चित हुआ था। इसलिये राजकुमारी का विवाह मेरे साथ किया जाये। मानसिंह की इस बात से जयपुर नरेश बिगड़ गया और उसने जोधपुर के ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर जोधपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में बीकानेर नरेश सूरतसिंह भी जयपुर की तरफ से जोधपुर राज्य पर चढ़ आया।

दुर्ग को चारों तरफ प्रबल शत्रुओं से घिरा हुआ जानकर जोधपुर नरेश मानसिंह ने पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाओं को प्राप्त किया। अमीरखां उदयपुर गया तथा उसने महाराणा को उकसाया कि वह राजकुमारी को अपने हाथों से जहर दे दे अन्यथा उसे जोधपुर राज्य तथा पिण्डारियों की सम्मिलित सेना से निबटना पड़ेगा। महाराणा भीमसिंह के शक्तावत सरदार अजीतसिंह ने भी अमीरखां का समर्थन किया। जब राजकुमारी कृष्णाकुमारी ने देखा कि उसके कारण लाखों हिन्दू वीरों के प्राण संकट में आने वाले हैं तो उसने जहर पी लिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराणा ने अपने हाथों से राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जहर पिला दिया।

जब चूण्डावत अजीतसिंह को इस बात का पता लगा तो उसने भरे दरबार में महाराणा भीमसिंह तथा शक्तावत अजीतसिंह की लानत–मलानत की तथा शक्तावत अजीतसिंह और उसकी पत्नी को श्राप दिया कि वे भी संतान की मृत्यु का कष्ट देखें। कहते हैं कि चूण्डावत सरदार के श्राप से कुछ दिनों बाद ही शक्तावत अजीतसिंह के पुत्र और पत्नी की मृत्यु हो गयी। शक्तावत अजीतसिंह जीवन से विरक्त होकर मंदिरों में भटकने लगा।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

पिण्डारियों ने पोकरण ठाकुर का सिर काटकर राजा को भिजवाया



ई. 1803 में राजा मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसके पूर्ववर्ती राजा भीमसिंह की विधवा रानी गर्भवती थी जिसने कुछ दिन बाद धोकलसिंह नामक पुत्र को जन्म दिया। पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके धोकलसिंह को मारवाड़ का राजा बनाना चाहा। उसने जयपुर के राजा जगतसिंह तथा बीकानेर के राजा सूरतसिंह को भी अपनी ओर मिला लिया। इन तीनों पक्षों ने लगभग एक लाख सिपाहियों की सेना लेकर जोधपुर राज्य पर चढ़ाई कर दी। मानसिंह ने गीगोली के पास इस सेना का सामना किया किंतु जोधपुर राज्य के सरदार जबर्दस्ती मानसिंह का घोड़ा युद्ध के मैदान से बाहर ले आये। शत्रु सेना ने परबतसर, मारोठ, मेड़ता, पीपाड़ आदि कस्बों को लूटते हुए जोधपुर का दुर्ग घेर लिया।


इस पर मानसिंह को पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। उसने अमीरखां को पगड़ी बदल भाई बनाया और उसे अपने बराबर बैठने का अधिकार दिया। इतना ही नहीं मानसिंह ने अमीर खां को पाटवा, डांगावास, दरीबा तथा नावां आदि गाँव भी प्रदान किये। अमीरखां ने महाराजा को वचन दिया कि वह सवाईसिंह को अवश्य दण्डित करेगा।


अमीरखां ने एक भयानक जाल रचा। उसने महाराजा मानसिंह से पैसों के लिये झगड़ा करने का नाटक किया तथा जोधपुर राज्य के गाँवों को लूटने लगा। जब सवाईसिंह ने सुना कि अमीर खां जोधपुर राज्य के गाँवों को लूट रहा है तो उसने अमीरखां को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण दिया। अमीर खां ने सवाईसिंह से कहा कि यदि सवाईसिंह अमीरखां के सैनिकों का वेतन चुका दे तो अमीरखां सवाईसिंह को जोधपुर के किले पर अधिकार करवा देगा। सवाईसिंह अमीरखां के आदमियों का वेतन चुकाने के लिये तैयार हो गया। इस पर अमीरखां ने सवाईसिंह को अपने साथियों सहित मूण्डवा आने का निमंत्रण दिया।

सवाईसिंह चण्डावल, पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को साथ लेकर मूण्डवा पहुँचा। अमीरखां के आदमियों ने इन ठाकुरों को एक शामियाने में बैठाया तथा धोखे से शामियाने की रस्सि्यां काटकर चारों तरफ से तोल के गोले बरसाने लगे। इसके बाद मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये गये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।कुछ दिनों बाद अमीरखां महाराजा से पैसों की मांग करने लगा। जब महाराजा ने पैसे देने से मना कर दिया तो उसने गाँवों में आतंक मचा दिया। एक दिन उसके आदमियों ने जोधपुर के महलों में घुसकर राजा मानसिंह के प्रधानमंत्री इन्द्रराज सिंघवी तथा राजा के गुरु आयस देवनाथ की हत्या कर दी।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

पिण्डारियों ने प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा


गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस (ई.1805) द्वारा देशी राज्यों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई गयी जिसके कारण न केवल मध्य भारत और राजपूताना की रियासतें पिंडारियों और दूसरे लुटेरों की क्रीड़ा स्थली बनीं बल्कि मराठों की शक्ति घटते जाने से पिंडारी बहुत शक्तिशाली बनते गये और वे अंग्रेजी इलाकों पर भी धावा मारने लगे। स्थान–स्थान पर पिण्डारियों के गिरोह खड़े हो गये। पिण्डारी मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ लुटेरे सैनिक होता है।

पिण्डारियों के दल अचानक गाँव में घुस आते और लूटमार मचाकर भाग जाते। कोई भी गाँव, कोई भी व्यक्ति, कोई भी जागीरदार तथा कोई भी राजा उनसे सुरक्षित नहीं था। अत: प्रत्येक गाँव में ऊँचे मचान बनाये जाते तथा उनपर बैठकर पिण्डारियों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। घोड़ों की गर्द देखकर उनके आगमन की सूचना ढोल या नक्कारे बजाकर दी जाती थी। पिण्डारियों के आने की सूचना मिलते ही लोग स्त्रियों, बच्चों, धन, जेवर तथा रुपये आदि लेकर इधर–उधर छुप जाया करते थे।

जागीरी गाँवों में जनता किलों में घुस जाती थी ताकि किसी तरह प्राणों की रक्षा हो सके। पिण्डारी किसी भी गाँव में अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। वे आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह निकल जाते थे। पिण्डारियों के कारण मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाड़ौती जैसे समृद्ध क्षेत्र उजड़ने लगे। भीलवाड़ा जैसे कस्बे तो पूरी तरह वीरान हो गये थे। कोटा राज्य को इन्होंने खूब रौंदा। झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों के विरुद्ध विशेष सैन्य दल गठित किये। इक्का दुक्का आदमियों को मार्ग में पाकर ये पिण्डारी अपने रूमाल से उनका गला घोंट देते और उनका सर्वस्व लूट लेते थे।

इस समय पिण्डारियों के चार प्रमुख नेता थे– करीमखां, वसील मुहम्मद, चीतू और अमीरखां। अमीरखां के नेतृत्व में लगभग 60 हजार पिण्डारी राजपूताना में लूटमार करते थे। अमीरखां का दादा तालेबखां अफगान कालीखां का पुत्र था। तालेबखां मुहम्मदशाह गाजी के काल में बोनेमर से भारत आया था। तालेबखां का लड़का हयातखां था जो मौलवी बन गया था। हयात खां का लड़का अमीरखां 1786 में भारत में ही पैदा हुआ था जो 20 बरस का होने पर रोजी–रोटी की तलाश में घर से निकल गया। उन दिनों सिंधिया का फ्रेंच सेनापति डीबोग्ले सेना की भर्ती कर रहा था। अमीरखां ने भी इस सेना में भर्ती होना चाहा किंतु डीबोग्ले ने उस अनुशासन हीन छोकरे को अपनी सेना में नहीं लिया। इस पर अमीरखां कुछ दिन तक इधर–उधर आवारागर्दी करने के बाद जोधपुर आया और विजयसिंह की सेना में भर्ती हो गया। कुछ समय बाद वह अपने साथ तीन–चार सौ आदमियों को लेकर बड़ौदा चला गया और गायकवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।

वहाँ से भी निकाले जाने पर अमीरखां और उसके आदमी भोपाल नवाब की सेवा में चले गये। ई. 1794 में अमीरखां और उसके आदमियों ने भोपाल नवाब मुहम्मद यासीन आलिआस चा खां के मरने के बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में भाग लिया और वहाँ से भागकर रायोगढ़ में आ गया। यहाँ उसके आदमियों की संख्या 500 तक जा पहुंची। अब उसे कुछ–कुछ महत्व मिलने लगा। कुछ समय बाद उसका राजपूतों से झगड़ा हो गया। राजपूतों ने उसे पत्थरों से मार–मार कर अधमरा कर दया। कई महीनों तक अमीरखां सिरोंज में पड़ा रहकर अपना उपचार करवाता रहा। ठीक होने पर वह भोपाल के मराठा सेनापति बालाराम इंगलिया की सेना में भर्ती हो गया। वहाँ उसे 1500 सैनिकों के ऊपर नियुक्त किया गया। भोपाल नवाब ने अमीरखां के आदमियों को जो वेतन देने का वादा किया था, वह कभी पूरा नहीं हुआ। इस पर 1798 ईस्वी में उसने जसवंतराव होलकर से संधि कर ली जिसमें तय हुआ कि अमीरखां कभी भी जसवंतराव पर आक्रमण नहीं करेगा तथा लूट के माल में दोनों आधा–आधा करेंगे।

1806 में अमीरखां ने अपनी सेना में 35 हजार पिण्डारियों को भर्ती किया। उसके पास 115 तोपें भी हो गयीं। यह संख्या बढ़ती ही चली गयी। अब मराठा सरदार अमीरखां की सेवाएं बड़े कामों में भी प्राप्त करने लगे। जब 1806 में जसवंतराव होलकर की सेना में विद्रोह हुआ तो होलकर ने मुस्लिम सैनिकों को नियंत्रित करने का काम अमीर खां को सौंपा। इस कार्य में सफल होने पर होलकर ने उसे मराठों की ओर से कोटा से चौथ वसूली का काम सौंपा। अमीर खां को होलकर से ही ई. 1809 में निम्बाहेड़ा की तथा ई. 1816 में छबड़ा की जागीर प्राप्त हुईं। 1812 में अमीरखां के पिण्डारियों की संख्या 60 हजार तक पहुँच गयी।
ई. 1807 से 1817 के बीच अमीरखां ने जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ राज्यों की आपसी शत्रुता में रुचि दिखायी तथा इन राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसके पिण्डारियों ने तीनों ही राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

महारावल ने घबराकर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया

जैसलमेर को अंतर्कलह में फंसा हुआ जानकर ई. 1783 में बीकानेर के राजा ने पूगल पर अधिकार कर लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उन दिनों जोधपुर राज्य में भी शासनाधिकार को लेकर कलह मचा हुआ था। राजा विजयसिंह अपने पौत्र मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किंतु विजयसिंह का दूसरा पौत्र पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर राज्य हड़पने का षड़यंत्र कर रहा था। भीमसिंह को जोधपुर राज्य छोड़कर जैसलमेर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान जैसलमेर के महारावल मूलराज तथा जोधपुर के राजकुमार भीमसिंह के मध्य एक संधि हुई तथा महारावल ने युवराज रायसिंह की पुत्री का विवाह भीमसिंह के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद परिस्थितियों ने पलटा खाया तथा विजयसिंह की मृत्यु होने पर भीमसिंह जोधपुर का राजा बना। मानसिंह को जोधपुर से भागकर जालोर के किले में शरण लेनी पड़ी। जब भीमसिंह जोधपुर का राजा बना तो जैसलमेर के युवराज रायसिंह को जोधपुर में रहना कठिन हो गया। वह अपने पिता से क्षमा याचना करने के लिये जैसलमेर राज्य में लौट आया। जोरावरसिंह तथा उसके अन्य साथी भी जैलसमेर आ चुके थे।

महारावल ने युवराज के समस्त साथियों तथा जोरावरसिंह को तो क्षमा कर दिया किंतु अपने पुत्र को क्षमा नहीं कर सका और उसे देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। रायसिंह के दो पुत्र अभयसिंह और धोकलसिंह बाड़मेर में थे। महारावल ने उन्हें कई बार बुलाया किंतु सामंतों ने डर के कारण राजकुमारों को समर्पित नहीं किया। महारावल ने रुष्ट होकर बाड़मेर को घेर लिया। 6 माह की घेरेबंदी के बाद सामंतों ने इस शर्त पर दोनों राजकुमारों को महारावल को सौंप दिया कि राजकुमारों के प्राण नहीं लये जायेंगे। महारावल ने जोरावरसिंह से दोनों राजकुमारों के प्राणों की सुरक्षा की गारण्टी दिलवायी।

दीवान सालिमसिंह के दबाव पर महारावल मूलराज ने युवराज रायसिंह के दोनों पुत्रों को रायसिंह के साथ ही देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। सालिमसिंह अपने पिता की हत्या करने वालों से बदला लेना चाहता था किंतु जोरावरसिंह उन सब सामंतों को महारावल से माफी दिलवाकर फिर से राज्य में लौटा लाया था। इसलिये सालिमसिंह ने जोरावरसिंह को जहर देकर उसकी हत्या करवा दी। कुछ ही दिनों बाद मेहता सालिमसिंह ने जोरावरसिंह के छोटे भाई खेतसी की भी हत्या करवा दी। सालिमसिंह का प्रतिशोध यहाँ पर आकर भी समाप्त नहीं हुआ। उसने कुछ दिन बाद देवा के दुर्ग में आग लगवा दी जिसमें युवराज रायसिंह तथा उसकी रानी जलकर मर गये। रायसिंह के दोनों पुत्र अभयसिंह तथा धोकलसिंह इस आग में जीवित बच गये थे। उन्हें रामगढ़ में लाकर बंद किया गया। कुछ समय बाद वहीं परा उन दोनों की हत्या कर दी गयी।
इस प्रकार जब राजपूताना मराठों और पिण्डारियों से त्रस्त था और अंग्रेज बंगाल की ओर से चलकर राजपूताने की ओर बढ़े चले आ रहे थे, जैसलमेर का राज्य अपनी ही कलह से नष्ट हुआ जा रहा था। बीकानेर का राजा जैसलमेर राज्य के पूगल क्षेत्र को हड़प गया था तो जोधपुर राज्य ने उसके शिव, कोटड़ा तथा दीनगढ़ को डकार लिया था। महारावल ने दीवान सालिमसिंह तथा अपने पड़ौसी राज्यों के अत्याचारों से घबरा कर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया।